मित्रों! आज फिर से मेरा एक पुराना गीत सुनिए! बहन अर्चना चावजी के स्वर में! आप इक बार ठोकर से छू लो हमें, हम कमल हैं चरण-रज से खिल जायेगें! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! फूल और शूल दोनों करें जब नमन, खूब महकेगा तब जिन्दगी का चमन, आप इक बार दोगे निमन्त्रण अगर, दीप खुशियों के जीवन में जल जायेंगे! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! हमने पारस सा समझा सदा आपको, हिम सा शीतल ही माना है सन्ताप को, आप नज़रें उठाकर तो देखो जरा, सारे अनुबन्ध साँचों में ढल जायेंगे! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! झूठा ख़त ही हमें भेज देना कभी, आजमा कर हमें देख लेना कभी, साज-संगीत को छेड़ देना जरा, हम तरन्नुम में भरकर ग़ज़ल गायेंगे! प्यार की ऊर्मियाँ तो दिखाओ जरा, संग-ए-दिल मोम बन कर पिघल जायेंगे!! |
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सोमवार, 30 अप्रैल 2012
"आज फिर से मेरा एक पुराना गीत अर्चना चावजी के स्वर में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

"खो गया जाने कहाँ है आचरण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

रविवार, 29 अप्रैल 2012
"मेरा गीत अर्चना चावजी के स्वर में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरा गीत सुनिए- अर्चना चावजी के मधुर स्वर में! सुख के बादल कभी न बरसे, दुख-सन्ताप बहुत झेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! अनजाने से अपने लगते, बेगाने से सपने लगते, जिनको पाक-साफ समझा था, उनके ही अन्तस् मैले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! बन्धक आजादी खादी में, संसद शामिल बर्बादी में, बलिदानों की बलिवेदी पर, लगते कहीं नही मेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! ज्ञानी है मूरख से हारा, दूषित है गंगा की धारा, टिम-टिम करते गुरू गगन में, चाँद बने बैठे चेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! |

"बेमौसम का गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों! आज प्रस्तुत है बेमौसम का गीत ![]() ताप धरा का कम करने को, नभ में काले बादल छाए। सूखे ताल-तलैया भरने, आँचल में लेकर जल आये।। मनभावन मौसम हो आया, लू-गर्मी का हुआ सफाया, ठण्डी-ठण्डी हवा चली है, धान खेत में हैं लहराये। सूखे ताल-तलैया भरने, आँचल में लेकर जल आये।। उमड़-घुमड़कर गरज रहे हैं, झूम-झूमकर लरज रहे हैं, लाल-लाल लीची फूली हैं, आम रसीले मन को भाये। सूखे ताल-तलैया भरने, आँचल में लेकर जल आये।। आँगन-चौबारों में पानी, नदियों में आ गई रवानी, मेढक टर्र-टर्र टर्राते, हरे सिंघाड़े बिकने आये। सूखे ताल-तलैया भरने, आँचल में लेकर जल आये।। सात रंग से सजा रूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, बच्चे गलियों के गड्ढों में कागज वाली नाव चलायें। सूखे ताल-तलैया भरने, आँचल में लेकर जल आये।। |

शनिवार, 28 अप्रैल 2012
‘‘मेरी पसन्द के सात दोहे’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012
"नजर न आया वेद कहीं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() देश-वेश और जाति, धर्म का, मन में कुछ भी भेद नहीं। भोग लिया जीवन सारा, अब मर जाने का खेद नहीं।। सरदी की ठण्डक में ठिठुरा, गर्मी की लू झेली हैं, बरसातों की रिम-झिम से जी भर कर होली खेली है, चप्पू दोनों सही-सलामत, पर नौका में छेद कहीं। भोग लिया जीवन सारा, अब मर जाने का खेद नहीं।। सुख में कभी नही मुस्काया, दुख में कभी नही रोया, जीवन की नाजुक घड़ियों में, धीरज कभी नही खोया, दुनिया भर की पोथी पढ़ लीं, नजर न आया वेद कहीं। भोग लिया जीवन सारा, अब मर जाने का खेद नहीं।। आशा और निराशा का संगम है, एक परिभाषा है, कभी गरल है, कभी सरल है, जीवन एक पिपासा है, गलियों मे बह रहा लहू है, दिखा कहीं श्रम-स्वेद नहीं। भोग लिया जीवन सारा, अब मर जाने का खेद नहीं।। |

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012
"फतह मिलती सिकन्दर को" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() रतन की खोज में हमने, खँगाला था समन्दर को इरादों की बुलन्दी से, बदल डाला मुकद्दर को लगी दिल में लगन हो तो, बहुत आसान है मंजिल हमेशा जंग में लड़कर, फतह मिलती सिकन्दर को अगर मर्दानगी के साथ में, जिन्दादिली भी हो जहां में प्यार का ज़ज़्बा, बनाता मोम पत्थर को नहीं ताकत थी गैरों में, वतन का सिर झुकाने की हमारे देश का रहबर, लगाता दाग़ खद्दर को हमारे “रूप” पर आशिक हुए दुनिया के सब गीदड़ सभी मकड़ी के जालों में फँसाते शेर बब्बर को |

बुधवार, 25 अप्रैल 2012
"मजहब की दूकानों में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() भटक रहा है आज आदमी, सूखे रेगिस्तानों में। चैन-ओ-अमन, सुकून खोजता, मजहब की दूकानों में। चौकीदारों ने मालिक को, बन्धक आज बनाया है, मिथ्या आडम्बर से, भोली जनता को भरमाया है, धन के लिए समागम होते, सभागार-मैदानों में। पहले लूटा था गोरों ने, अब काले भी लूट रहे, धर्मभीरु भक्तों को, भगवाधारी जमकर लूट रहे, क्षमा-सरलता नहीं रही, इन इन्सानी भगवानों में। झोली भरते हैं विदेश की, हम सस्ते के चक्कर में, टिकती नहीं विदेशी चीजें, गुणवत्ता की टक्कर में, नैतिकता नीलाम हो रही, परदेशी सामानों में। जितनी ऊँची दूकानें, उनमें फीके पकवान सजे, कंकड़-पत्थर भरे कुम्भ से, कैसे सुन्दर साज बजे, खोज रहे हैं लोग जायका, स्वादहीन पकवानों में। गंगा सूखी, यमुना सूखी, सरस सुमन भी सूख चले, ज्ञानभास्कर लुप्त हो गया, तम का वातावरण पले, ईश्वर-अल्लाह कैद हो गया, आलीशान मकानों में।। |

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012
"होगा जहाँ मुनाफा उस ओर जा मिलेंगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों! सात जुलाई, 2009 को यह रचना लिखी थी! इस पर नामधारी ब्लॉगरों के तो मात्र 14 कमेंट आये थे मगर बेनामी लोगों के 137 कमेंट आये। एक बार पुनः इसी रचना ज्यों की त्यों को प्रकाशित कर रहा हूँ। आशा है कि आपको पसन्द आयेगी! इन्साफ की डगर पर, नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है, दल-दल दलों का जमघट। संसद में फिल्म जैसा, होता है खूब झंझट। फिर रात-रात भर में, आपस में गुल खिलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा उस ओर जा मिलेंगे।। गुस्सा व प्यार इनका, केवल दिखावटी है। और देश-प्रेम इनका, बिल्कुल बनावटी है। बदमाश, माफिया सब इनके ही घर पलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।। खादी की केंचुली में, रिश्वत भरा हुआ मन। देंगे वहीं मदद ये, होगा जहाँ कमीशन। दिन-रात कोठियों में, घी के दिये जलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।। |

सोमवार, 23 अप्रैल 2012
"दोहे-काहे का अभिमान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() चार दिनों की ज़िन्दगी, काहे का अभिमान। धरा यहीं रह जाएगा, धन के साथ गुमान।। जिनका सरल सुभाव है, उनका होता मान। लम्पट, क्रोधी-कुटिल का, नहीं काम का ज्ञान।। धन के सब स्वामी बने, नहीं कहावें दास। जो बन जाते दास हैं, रहते वही उदास।। कर्म बनाता भाग्य को, यह जीवन-आधार। कर्तव्यों के साथ में, मिल जाता अधिकार।। हित जिससे होवे जुड़ा, वो ही है साहित्य। सभी विधाओं में रहे, शब्दों में लालित्य।। |

रविवार, 22 अप्रैल 2012
"नदी के रेत पर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() रोज लिखता हूँ इबारत, मैं नदी के रेत पर शब्द बन जाते ग़ज़ल मेरे नदी के रेत पर जब हवा के तेज झोकों से मचलती हैं लहर मेट देती सब निशां मेरे, नदी के रेत पर चाहिए कोरे सफे, सन्देश लिखने के लिए प्रेरणा मिलती मुझे, आकर नदी के रेत पर हो स्रजन नूतन, हटें मन से पुरानी याद सब निज नवल-उदगार को, रचता नदी के रेत पर “रूप” भाता हैं मुझे फैली हुई बलुआर का इसलिए आता नियम से मैं, नदी के रेत पर |

शनिवार, 21 अप्रैल 2012
"1300वाँ पुष्प" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() हमें जब भी हसीं लम्हे पुराने याद आते हैं सभी मिलने-मिलाने के बहाने याद आते हैं चमन में गूँजती हैं आज भी वो ही सदाएँ हैं तुम्हारे गुनगुनाए गीत-गाने याद आते हैं गवाही दे रहे हैं ये पुराने पेड़ बागों के जहाँ बैठे कभी थे वो ठिकाने याद आते हैं बहुत आँसू बहाये थे, बड़े सपने सजाए थे जवानी के हमें अपने ज़माने याद आते हैं हवा के एक झोंके ने उजाड़ा आशियाँ अपना तुम्हारे वास्ते लिक्खे तराने याद आते हैं कलेजे में समेटे हैं बुझी चिनगारियाँ अब तक तुम्हारे “रूप” के मंजर सुहाने याद आते हैं |

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012
"छप्पर अनोखा छा रहा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() हो गया मौसम गरम, सूरज अनल बरसा रहा। गुलमोहर के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। दर्द-औ-ग़म अपना छुपा, हँसते रहो हर हाल में, धैर्य मत खोना कभी, विपरीत काल-कराल में, चहकता कोमल सुमन, सन्देश देता जा रहा। गुलमोहर के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। घूमता है चक्र, दुख के बाद, सुख भी आयेगा, कुछ दिनों के बाद बादल, नेह भी बरसायेगा, ग्रीष्म ही तरबूज, ककड़ी और खीरे ला रहा। गुलमोहर के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। सर्दियों के बाद तरु, पत्ते पुराने छोड़ता, गर्मियों के वास्ते, नवपल्लवों को ओढ़ता, पथिक को छाया मिले, छप्पर अनोखा छा रहा। गुलमोहर के पादपों का, “रूप” सबको भा रहा।। |

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012
"हमारी नैनो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आखिरकार हमने भी नैनो ले ही ली! घर में एक बाइक, एक स्कूटर और एक ज़ेन-स्टिलो कार पहले से ही थी। बड़े बेटे की पोस्टिंग देहरादून में हो गयी और वह मोटरसाइकिल वहाँ ले गया। अब घर में दोपहिया वाहन में केवल एक स्कूटर ही बचा। इसपर मैंने कहा कि अब तुमने अपनी पसन्द की शादी भी कर ली है तो तुमको "नैनो" लेकर दे देते हैं। छोटी पुत्रवधु पल्लवी और मेरी धर्मपत्नि अमरभारती नैनो का स्वागत करती हुईं। छोटे पुत्र विनीत को तिलक लगाकर मिठाई खिलाते हुए पल्लवी और अमरभारती। श्रीमती जी ने हमें भी तिलक लगाया। अब हमने भी नैनों का जायजा लिया। नैनों के साथ हम दोनों ने फोटो भी खिंचवाये। पल्लवी, विनीत और श्रीमती जी नैनो पाकर कितने खुश हैं। |

"सच्चे कवि कहलाओगे तब" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() अपना धर्म निभाओगे कब जग को राह दिखाओगे कब अभिनव कोई गीत बनाओ, घूम-घूमकर उसे सुनाओ स्नेह-सुधा की धार बहाओ वसुधा को सरसाओगे कब जग को राह दिखाओगे कब सुस्ती-आलस दूर भगा दो देशप्रेम की अलख जगा दो श्रम करने की ललक लगा दो नवअंकुर उपजाओगे कब जग को राह दिखाओगे कब देवताओं के परिवारों से ऊबड़-खाबड़ गलियारों से पर्वत के शीतल धारों से नूतन गंगा लाओगे कब जग को राह दिखाओगे कब सही दिशा दुनिया को देना अपनी कलम न रुकने देना भाल न अपना झुकने देना सच्चे कवि कहलाओगे तब जग को राह दिखाओगे तब |
